Thursday, 27 July 2017

उसको बोध हो गया था परिधानबाबू के तोता वाले दांव का: एक कविता के रूप मे नीतिश पर कटाक्ष

दोस्तों, आज एक कविता के संग नीतिशबाबू और प्रधानमंत्री के सीबीआई वाले तोता के रोल को कविता मे पिरोकर बयां करूंगा।


वो आदी था रंग भगवे का, उसके जमीर को डंस मार गया था सत्ता वाले लकवे का, वो नेता बनता था बडा सिध्दांतो और नैतिकताओं का, उसको बोध हो गया था परिधानबाबू के तोता वाले दांव का।


वो बडा चिल्लाया था जब परिधानबाबू ने उसके डीएनए पर सवाल उठाया था, चेला कहकर उसको तांत्रिक का तंत्र-विद्या वाला बाबू बतलाया था, संग चली सद्भाव बनाने वाली ताकतें लाखों बिहारी का डीएनए परिधानबाबू तक पहुंचलाया था।


आरोपों के फेर मे घेर लिया उभरते इक युवा को, जिसको उस युवा के पद पर बिठाया है उस पर भी देखलो कितना फेर लगा है अपराधिक धाराओं का, उसको बोध हो गया था परिधानबाबू के तोता वाले दांव का।




इक बांटने वाली ताकत को मिल रोका था सद्भावना वाली ताकतों ने पर वो बेकार प्रयास गया, कुछ ना बिगड़ा दोनों का तीसरा साथी खुद का उडा उपहास गया, सत्ता की जंजीरों की पकड मे कैसे तुम रह पाओगे, बदल गया माहौल तुम परिधानबाबू की बेडियों मे जकडे जाओगे, इक-इक लेगा वो हिसाब परिधानबाबू के पैर की जूती बन जाओगे, धूप मे खडे काले हो जाओगे सुख कैसे पाओगे ठंडी इस सद्भाव भरी छांव का, उसको बोध हो गया था परिधानबाबू के तोता वाले दांव का।


जब वो परिधानबाबू को छोड सद्भाव की छांव मे आया था, मिट्टी मे मिल जाऊंगा पर सांप्रदायिक रंग मे रंगने ना पाऊंगा, कुछ ऐसा कहकर पाठ उसने नैतिकता का पढवाया था, नही था अहसास किसी को कि वो सांप्रदायिक रंग मे ही रंगा जायेगा, वो कोशिश मे भी लगा था कि परिधानबाबू मैं ही बन जाऊंगा खुद उसको भी मालूम नही था कि ऐसे ही परिधानबाबू के कदमों मे झुक जाऊंगा, वो चला था बन राही अलग ही सद्भाव भरी राहों का, निकल पडा बना मुसाफ़िर सांप्रदायिक राहों का, उसको बोध हो गया था परिधानबाबू के तोता वाले दांव का।


इन्हीं अंतिम पंक्तियो के संग वापिसी की तरफ बढता हूं।


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